Figure 1 - तत्कालीन राष्ट्रपति डा. शंकर दयाल शर्मा को समांतर कोश की पहली प्रति भेंट करते अरविंद कुमार दंपति. 13 दिसंबर 1996. यह अरविंद कुमार की पहली प्रकाशित पुस्तक थी. तब अरविंद 66वाँ वर्ष पूरा कर रहे थे.
आज जब अरविंद कुमार को हिंदी अकादेमी दिल्ली ने शलाका सम्मान से विभूषित किया है तो उन्हेँ याद आते हैँ 1945 से शुरू होते कुछ दिन. जनवरी मेँ वह पंदरह साल के हुए थे, मैट्रिक की परीक्षा मेँ बैठ चुके थे, अंतिम पर्चा 26 मार्च को हुआ था और पहली अप्रैल से ही सरिता के प्रकाशकोँ के दिल्ली प्रैस मेँ बतौर कंपोज़ीटर-डिस्ट्रीब्यूर काम करने लगे थे. साथ साथ आज़ादी की लड़ाई मेँ तरुण सैनिक की तरह दिल्ली के करोह बाग़ उपनगर मेँ पूरी तरह सक्रिय थे. और कांग्रेस सेवादल के साथ साथ जुझारू लाल क़िला ग्रुप के सदस्य थे. जिन दिनोँ महात्मा गाँधी नई दिल्ली की भंगी कालोनी (आजकल हरिजन बस्ती) मेँ रहते थे, तो पूरे एक महीने वहाँ स्वयंसेवक के रूप में उपस्थित रहे थे. आज़ादी के लिए ब्रिटिश सरकार से जो बातचीत चल रही थी, उस पर विचार विमर्श करने के लिए पंडित नेहरू, मौलाना आज़ाद, सरदार पटेल जैसे नेता वहाँ गाँधी जी से मिलने आते जाते रहते थे.
जीवन का महामंत्र
15 अगस्त को पहले स्वाधीनता दिवस पर लाल क़िले से पंडित नेहरू का ओजस्वी भाषण सुनने अरविंद कुमार भारी भीड़ मेँ मौजूद थे. पंडितजी ने भारत के प्राचीन गौरव का वर्णन करते भविष्य का जो ख़ाक़ा बुना वह अब तक अरविंद के कानोँ मेँ गूँजता है. उन के सभी मित्रोँ के सामने सवाल था आज़ाद हिंदुस्तान मेँ देशभक्ति का मतलब क्या? अरविंद कुमार का मानना था कि अब वही आदमी देशभक्त माना जाना चाहिए जो अपना हर काम मेहनत से, पूरी तनदेही से, ईमानदारी से करे और निजी विकास कर के देश को आगे बढ़ाए. कोरी नारेबाज़ी को नए दौर मेँ देशभक्ति नहीँ कहा जा सकता.
बस यह उन्होँने अपने जीवन का महामंत्र बना लिया.
1948 आते आते दिन भर प्रैस मेँ नौकरी के बाद शाम के समय आगे की पढ़ाई शुरू कर दी. मैट्रिक मेँ उन्हेँ चार विषयोँ में डिस्टिंक्शन मिला था. 1956 तक शाम को चलने वाले पंजाब विश्वविद्यालय के ईविंग कालिज से इंग्लिश लिटरेचर मेँ ऐमए कर लिया. तब तक वह दिल्ली प्रैस मेँ पहले प्रूफ़ रीडर, फिर उप संपादक सरिता, बाद में उप संपादक (इंग्लिश) कैरेवान बन चुके थे. फिर धीरे धीरे वहाँ की सभी पत्रिकाओँ के प्रभारी सहायक संपादक बन गए थे.
इसी बीच 1953 मेँ उन का परिचय हुआ इंग्लिश के पहले थिसारस से. ठीक 101 साल पहले लंदन मेँ इस ऐतिहासिक कोश की रचना फ़्राँसीसी मूल के वैज्ञानिक और भाषाप्रेमी रोजेट ने की थी. यह किताब क्या देखी, अरविंद जी दीवाने हो गए. दिनरात अपने पास रखते, जब तब पन्ने पलटते, शब्दोँ के अनमोल भंडार मेँ विचरते, इंग्लिश की शब्दशक्ति बढ़ाते रहते… और सोचते चाहते रहते कि हिंदी मेँ भी कोई ऐसा कोश हो तो क्या हो! वाह हो! हिंदी का भला हो, हिंदी आगे बढ़े, तेज़ी से बढ़े. 23 साल की उमर के अरविंद यह सोच ही नहीँ सकते थे कि इस के 43 साल बाद आज़ादी का पचासवाँ साल आते आते उन्हीँ के हाथ का बना हिंदी का पहला थिसारस छपेगा और उसकी पहली प्रति वह स्वयं और उन की पत्नी कुसुम भारत के राष्ट्रपति को भेंट करेँगे. अपनी देशभक्ति और हिंदी प्रेम का साकार प्रमाण पेश करेँगे. वह तो बस यही सोचते थे कि भारत सरकार ने हिंदी कोशकारिता के लिए इतने सारे आयोग बनाए हैँ. वहाँ से कभी न कभी हिंदी का थिसारस भी आएगा ही.
लेकिन यहाँ तक का सफ़र कोई आसान सफ़र नहीँ था. वह जो सपना था, 1973 के दिसंबर की 26-27 तारीख़ तक सपना ही बना रहा था. इस बीच वह सरिता कैरेवान छोड़ कर मुंबई (तब बंबई) से टाइम्स आफ़ इंडिया के लिए फ़िल्म पत्रिका माधुरी का संपादन करने पहुँच चुके थे (नवंबर 1963). तब वह हिंदी के डाक्टर धर्मवीर भारती, महावीर अधिकारी, चंद्रगुप्त विद्यालंकार और आनंदप्रकाश जैन और इंग्लिश के शामनाथ, डाक्टर रांगणेकर, ख़ुशवंत सिंह और बी.के. करंजिया जैसे संपादकोँ के बीच टाइम्स संस्थान के सब से कम उम्र के संपादक थे. उन्होँने माधुरी को सस्ती स्टार-क्रेज़ी फ़िल्म पत्रकारिता से दूर रखा था, हिंदी मेँ कलात्मक और सुरुचिपूर्ण फ़िल्मोँ को प्रोत्साहन देने के लिए समांतर सिनेमा आंदोलन की मुखपत्रिका बना दिया.
माधुरी के संपादन के आरंभिक काल मेँ ही उन्हेँ गीतकार शैलेंद्र, निर्माता-निर्देशक राज कपूर, देव आनंद, बी.आर. चोपड़ा, शक्तिसामंत, मृणाल सेन, संगीतकार नौशाद, ख़य्याम, जयदेव, शंकर जयकिशन जैसे दिग्गजोँ से फ़िल्म कला के बारे मेँ जानने को बहुत कुछ मिला. लेकिन 1973 तक आते आते उन्हें लगने लगा था कि वह कोरे फ़िल्म पत्रकार बनने के लिए नहीँ जनमे हैँ. उन्हें तो अपना कुछ ऐसा करना है जिस के लिए वह पैदा हुए हैँ, जो उन का अपना निजी सपना हो.
सपना तेरा है तू ही साकार कर
तभी दिसंबर 26-27 की रात उन्हेँ याद आया वह रोजेट का थिसारस और उस जैसी कोई किताब हिंदी मेँ होने की आकांक्षा. तब रात के अँधेरे मेँ किसी ने उन से कहा – “सपना तेरा था, तो कोई दूसरा क्योँ साकार करेगा. तुझे ही यह करना है, तू ही हिंदी को थिसारस दे.” और 27 की सुबह हैंगिंग गार्डन मेँ सैर के समय अरविंद और कुसुम ने तय कर लिया कि वही यह कोश बनाएँगे.
कहीं से कैसी भी आर्थिक सहायता की संभावना नहीँ थी. तय किया कि फ़िलहाल शाम के सुबह और समय मुंबई मेँ ही घर पर काम करें, किफ़ायती जीवन जी कर बचत बढ़ाएँ और 1978 की मई तक माधुरी छोड़ कर दिल्ली अपने घर चले जाएँ. उस दिन से जीवन को नई राह मिल गई.
1978 मेँ वह मुंबई फ़िल्म पत्रकारिता में शीर्ष पर थे. मायानगरी की मोहमाया छोड़ कर दिल्ली चले आए. पर मुसीबतेँ तो अभी शुरू होनी थीं. सितंबर में माडल टाउन को यमुना की बाढ़ ने घेर लिया. मुंबई से लाया सब साज़ सामान पानी की भेंट चढ़ गया. कुछ बचा तो बचे थे समांतर कोश के कार्ड… भूत काल बहा ले गई थी, यमुना भविष्य को सुरक्षित छोड़ गई थी.
तभी दूसरी मुसीबत आई. पिताजी ने बाढ़ से परेशान हो कर वह मकान सस्ते मेँ बेच दिया. अब गाज़ियाबाद के सूर्यनगर-चंद्रनगर इलाक़े में आए. जो बचत थी वह सब हवा हो गई. रीडर्स डाइजेस्ट का हिंदी संस्करण सर्वोत्तम निकालने की जिम्मेदारी लेनी पड़ी. लेकिन वहाँ कुल पाँच साल (1980-1985) काम किया. आर्थिक दशा कामचलाऊ होते ही सर्वोत्तम छोड़ दिया और समांतर कोश के काम मेँ पूरी तरह लग गए.
और तब 1989 मेँ दिल का भारी दौरा पड़ा. सफल आपरेशन हुआ. कुछ दिन बाद ही जांडिस ने घेर लिया. उस से निकल कर फिर पति पत्नी दिनरात समांतर कोश पर काम करने लगे. बेटे डाक्टर सुमीत ने सुझाव दिया और इस के लिए आर्थिक संसाधन जुटाए कि सारा काम कंप्यूटर पर किया जाए. 63 साल के अरविंद ने कंप्यूटर पर काम शुरू किया. पुराना डाटा किसी से फ़ीड करवाया. नया डाटा अपने आप जोड़ा.
जो काम कुल दो साल मेँ पूरा करने का अनुमान था, वह बड़ी जद्दोजहद के बात 23 साल बाद 1996 मेँ पूरा हुआ. और नेशनल बुक ट्रस्ट ने स्वाधीनता के पचासवेँ वर्ष की पुस्तकोँ में सम्मिलित करते हुए प्रकाशित किया.
पर अरविंद का काम अभी ख़त्म नहीँ हुआ था. अब उस डाटा मेँ इंग्लिश डालने की धुन सवार हुई. दस साल की मेहनत के बाद स्वाधीनता के साठवेँ वर्ष मेँ विश्व का तीन खंडोँ वाला विशालतम द्विभाषी थिसारस द पेंगुइन इंग्लिश-हिंदी/हिंदी-इंग्लिश थिसारस ऐंड डिक्शनरी प्रकाशित हुआ.
Figure 2 – अरविंद लैक्सिकन में सुंदर के पर्यायोँ का पहला पेज
और अब अरविंद कुमार ने 1947 के देशभक्ति के अपने मूल मंत्र का पालन करते हुए बनाया है इंटरनेट पर ज़ारी होने वाला अनोखा अरविंद लैक्सिकन. लैक्सिकन के विशाल शब्द महसागर में 9,00,000 से ज़्यादा इंग्लिश और हिंदी अभिव्यक्तियाँ हैँ. माउस से क्लिक कीजिए - पूरा रत्नभंडार खुल जाएगा... उदाहरण के लिए सुंदर शब्द के इंग्लिश मेँ 200 से और हिंदी मेँ 500 से ज़्यादा पर्याय हैँ. यह 15 अगस्त 2011 से राष्ट्र ही नहीँ दुनिया भर के भाषाप्रेमियोँ को उपलब्ध होगा.
इस के बाद अरविंद निष्क्रिय बैठने वाले नहीँ हैँ. अब वह इस में तमिल और चीनी भाषाएँ जोड़ने की योजना बना रहे हैँ. उन का कहना है चलना जीवन की कहानी रुकना मौत की निशानी.
--दयानंद पांडेय