करामाती कोशकार अरविंद कुमार

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शब्द खोजने और सम्मिलित करने के लिए अरविंद को प्राचीन संस्कृति ही नहीँ समसामयिक समाज में भी पैठना पड़ा.

--मोहन शिवानंद

 

प्रकाशनालय दिल्ली प्रैस का वह नौजवान पत्रकार अरविंद एक हिंदी कहानी का इंग्लिश अनुवाद करते करते बुरी तरह उलझा था. एक हिंदी शब्द के लिए उसे उपयुक्त इंग्लिश शब्द नहीँ सूझ रहा था. यह था 1952 में अप्रैल महीने का एक तपता गरम दिन. पास ही बैठा था एक मित्र वरिष्ठ इंग्लिश फ़्रीलांसर. अरविंद की समस्या भाँप कर वह उसे निकट ही कनाट प्लेस मेँ किताबोँ की एक दुकान तक ले गया और एक किताब उसे पकड़ा दी. यह था ठीक सौ साल पहले लंदन में छपा लंबे से नाम वाला – थिसारस आफ़ इंग्लिश वर्ड्स ऐंड फ़्रैजेज़ क्लासिफ़ाइड ऐंड अरेंज्ड सो ऐज़ टु फ़ैसिलिटेट द ऐक्सप्रैशन आफ़ आइडियाज़ ऐंड ऐसिस्ट इन लिटरेररी कंपोज़ीशन. इस का हिंदी अनुवाद कुछ इस प्रकार होगा – साहित्यिक रचना और विचारोँ की अभिव्यक्ति में सहायतार्थ सुनियोजित और संयोजित इंग्लिश शब्दों और वाक्यांशोँ का थिसारस[1]. रोजट्स थिसारस नाम से मशहूर इस किताब के पन्ने पलटते ही अरविंद पर उस का जादू चढ़ गया. तुरंत ख़रीद ली.

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अरविंद कुमार – हाथ मेँ है समांतर कोश के नए प्रिंट का संदर्भ खंड, मेज़ पर है द पेंगुइन इंग्लिश–हिंदी/हिंदी–इंग्लिश थिसारस ऐंड डिक्शनरी

उम्र थी बाईस साल. पिछले सात साल से पिताजी की अपर्याप्त आय में थोड़ा बहुत जोड़ने के लिए वह यहाँ काम कर रहा था. दसवीँ पास था. शुरूआत की छपे टाइपों को केसों में वापस डालने (यानी डिस्ट्रीब्यूट करने) के काम से. कंपोज़ीटर, कैशियर, टाइपिस्ट, प्रूफ़रीडर, हिंदी पत्रिका सरिता में उप संपादक होता होता वह इतने कम समय मेँ इंग्लिश पत्रिका कैरेवान में उपसंपादक बन चुका था. शाम के समय ईवनिंग कालिज में पढ़ता ऐमए (इंग्लिश) की तरफ़ बढ़ रहा था.

वह अनोखी किताब क्या हाथ लगी कि हाथ से छूटती ही नहीँ थी. उस की हमजोली बन गई, हर दम साथ रहती. ज़रूरत पड़ने पर तो उस से मदद लेता ही, बेज़रूरत भी पन्ने पलटता शब्द पढ़ता रहता. बार बार चाह उठती – हिंदी में भी कुछ ऐसा हो. भारत मेँ कोशकारिता की परंपरा पुरानी है. प्रजापति कश्यप का 1800 वैदिक शब्दोँ का संकलन निघंटु  था, अमर सिंह का 8,000 शब्दोँ वाला प्रसिद्ध थिसारस अमर कोश था. हिंदी में ऐसा था ही कुछ नहीँ.

 

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1963 तक अरविंद दिल्ली प्रैस के सभी प्रकाशनोँ का कार्यकारी सहायक संपादक बन गया था. टाइम्स आफ़ इंडिया समूह ने संपादक का पद देने की पेशकश की, तो सीधे सादे सरलचित्त निरभिमान पत्रकार के लिए यह सुनहरी मौक़ा था – मुंबई से हिंदी फ़िल्म पत्रिका माधुरी आरंभ करना. फ़िल्मोँ की जानकारी मुझे कुछ कम ही थी, वह बेबाक बताता है. मेरे लिए यह बड़ी चुनौती थी. पहले अंक से ही माधुरी अग्रतम हिंदी फ़िल्म पत्रिका बन गई.

फिर 26 दिसंबर 1973 को सुबह की सैर पर अरविंद ने अपनी सोई आकांक्षा का ज़िक्र पत्नी कुसुम से किया. अभी तक तो हिंदी थिसारस बना नहीँ. मुझे ही बनाना होगा. हिंदी को, समाज को, इस की बेहद ज़रूरत है. इस के लिए मुझे नौकरी भी छोड़नी पड़ सकती है. अपने घर दिल्ली जाना पड़ेगा. हरर महीने किराया तो नहीँ चढ़ेगा. तुम दोगी मेरा साथ?

दोनोँ बच्चे स्कूल जाते थे, जमा-जमाया काम था, दक्षिण मुंबई के एक प्रतिष्ठित भाग मेँ फ़्लैट था. काम जोखिम भरा था. अब तक किसी ने यह करने की हिम्मत नहीँ की थी. ऐसे काम में हाथ डालना हिमाक़त ही था. मैँ जीवन भर धर्मेंद्र और हेमा मालिनी के बारे में लिखते छापते रहने के लिए ही तो पैदा नहीँ हुआ हूँ ना, अरविंद ने कहा.

ठीक है, कुसुम ने बेहिचक जवाब दिया, पर हमें सोच समझ कर क़दम उठाना होगा. तय हुआ कि माधुरी छोड़ने का सही समय लगभग पाँच साल बाद होगा. कार के लिए लिया कर्ज़ तब तक चुक चुका होगा. दिल्ली वापस जाने पर बच्चोँ की पढ़ाई पर भी बुरा असर नहीँ पड़ेगा.

 काम में बस दो साल लगेंगे,” अरविंद ने आश्वासन दिया. बाद मेँ कोई और काम तो मिल ही जाएगा. अरविंद का सोचना था कि रोजट के माडल पर हिंदी पर्याय और विपर्याय शब्द डालने से काम चल जाएगा. यह तो बाद मेँ पता चला कि यह माडल हिंदी के काम का नहीँ था.

 

भावी आर्थिक स्थिति का कोई भरोसा नहीँ था. हर तरफ़ कतरब्योँत की जाने लगी. सादा खाना और सादा हो गया. महँगी चीज़बस्त की ख़रीद टाल दी गई. सोफ़ासैट पर पैसे लगाने का इरादा तर्क़ कर दिया. जब जहाँ सस्ते कपड़ेलत्ते मिले, ले लिए – क्या पता फिर कब मौक़ा मिले. इसी तरह जितने भी जिस तरह के कोश – हिंदी के, इंग्लिश के – मिले ख़रीद लिए. हर तरह के संदर्भ साहित्य की आवश्यकता थी.

अप्रैल 1976 मेँ काम का अभ्यास आरंभ हुआ. शब्द संकलन के लिए जिस तरह के कार्ड चाहिए थे, बनवाए जा चुके थे. धार्मिक भावना से नहीँ, ऐतिहासिक काम की शुरूआत औपचारिक ढंग से करने के लिए मुंबई के पास का तीर्थस्थान नासिक चुना गया. गाड़ी में कार्ड और कुछ कोश लाद कर पूरे परिवार ने टाइम्स आफ़ इंडिया के गैस्ट हाउस में डेरा डाला, सुबह सबेरे गोदावरी मेँ स्नान किया, तांबे के लोटे पर तारीख़ अंकित कराई, पहला कार्ड बनाया, जिस पर चारोँ सदस्योँ ने विधिवत दस्तख़त किए. और मुंबई लौट कर अपने सपने को पूरा करने का अभ्यास शुरू किया.

माधुरी छोड़ते समय (मई 1978) बेटा सुमीत मैडिकल कालिज जाइन करने वाला था, बेटी मीता ने आठवीँ पास कर ली थी. सौ से अधिक कोशोँ की संपत्ति सँजोए परिवार अपने घर दिल्ली (माडल टाउन) पहुँचा. उस में 14 x 14 फ़ुट की छह फ़ुट ऊँची, गरमी में बेहद गरम और सर्दी में बेहद ठंडी होने वाली मियानी काम का कमरा बनी. अरविंद और कुसुम ने फिर से ट्रेओँ मेँ रोजट के माडल के अनुरूप सभी के शीर्षकोँ उपशीर्षकों की संख्या वाले कार्ड क़रीने से लगा दिए.

कई ऐसे शब्द मुंबई से ही मिलने लगे थे जिन के लिए रोजट में जगह नहीँ थी. दिल्ली में तो यह समस्या और भी मुँह बाए खड़ी हो गई. पहले से ही क्रमांकित कार्डोँ को आगे पीछे उलट पलट कर दिनरात बढ़ती नई कोटियोँ के लिए संख्याएँ जोड़ना संभव नहीँ था.

अरविंद समझाते हैं: “रोजट के माडल मेँ हर संकल्पना[2] का एक सुनिश्चित स्थान है. उस का आधार वैज्ञानिक है. लेकिन भाषा जो भी हो, वैज्ञानिक नहीँ होती. नए नए शब्द विज्ञान के आधार पर नहीँ, मानसिक संबंधों के आधार पर, कई बार बस यूँ ही या सामाजिक अवधारणाओँ पर बनते हैँ. इंग्लिश के रेनी डे का मुख्य अर्थ है कठिन समय, हमारे यहाँ बरसाती दिन सुहावना होता है, कविता का विषय है, रोमांस का समय है.

बात आगे बढ़ाते वह कहते हैँ: “विज्ञान मेँ गेहूँ एक तरह की घास भर है, आम आदमी के लिए वह खाद्य अनाज है. संस्कृत से ले कर हिंदी ही नहीँ सभी भारतीय भाषाओँ के अपने अलग सामाजिक संदर्भ हैँ. सांस्कृतिक संकल्पनाएँ हैँ. एक और समस्या यह है कि काव्य की भाषाएँ होने के कारण हमारे यहाँ इंग्लिश के मुक़ाबिले पर्यायोँ की भरमार है.हलदी के लिए अरविंद को 125 पर्याय मिले! ‘हैल्मेट[3] के लिए 32.

इंग्लिश में ईवनिंग इन पैरिस पैरिस की कोई भी शाम है, हमारे यहाँ शामे अवध की रौनक़ बेमिसाल मानी जाती है, सुबहे बनारस मेँ पूजापाठ और शंखनाद का पावन आभास है, तो शबे मालवा सुहावनी ठंडक की प्रतीक है.

एक बार अरविंद का दिल्ली से लगभग तीस पैँतीस किलोमीटर दूर मुरादनगर जाना हुआ. वहाँ एक कारीगर के मुँह से नया शब्द सुना: बैटरा! - बैटरी का पुंल्लिंग. मतलब था ट्रैक्टर ट्रक आदि मेँ लगने वाली बड़ी बैटरी. हिंदी इसी तरह के सैकड़ोँ अड़बंगे लेकिन बात को सही तरह कहने वाले नए शब्दोँ से भरी है. इस का अर्थ था कि हिंदी थिसारस बनाना जितना मैं ने सोचा था, उस से दस गुना कठिन निकला. पीछे मुड़ कर देखता हूँ तो दस गुना ज़्यादा दिलचस्प भी. 

ऐसे दसियोँ हज़ार शब्द खोजने और सम्मिलित करने के लिए अरविंद को प्राचीन संस्कृति ही नहीँ समसामयिक समाज में भी पैठना पड़ा. संदर्भोँ और शब्द-संबंधोँ के इन दरीचोँ गलियारोँ मेँ भटकते गुज़रते शब्दोँ को समझते परखते, उन के लिए संकलन मेँ उपयुक्त जगह तलाशते या बनाते संकल्पनाओँ और कार्डों की संख्या बढ़ती जा रही थी. दोनोँ सुबह पाँच बजे काम में जुट जाते, शाम तक लगे रहते.

और तब आया 1978 का सितंबर महीना – अपने साथ लाया जमुना नदी की भयंकर बाढ़. एक-मंज़िला घर बाढ़ की चपेट मेँ आ गया. कुछ बचा तो मियानी में रखे कोश और कार्ड. यह संकेत था कि मुझे इसी काम में लगे रहना है.बाढ़ के बाद पिताजी ने वह घर बेच दिया. काम का तबादला दिल्ली से गाज़ियाबाद की नवविकसित कालोनी चंद्रनगर-सूर्यनगर हो गया. वहीँ अरविंद और कुसुम अब तक रहते भी हैं.

 

आय कुछ थी नहीँ. प्रोविडैंट फ़ंड से जो पैसा मिला था, उसी पर सूद के सहारे गुज़र हो रही थी. वह भी कम होता जा रहा था. उस का कुछ भाग नई जगह मकान के लिए ज़मीन ख़रीदने मेँ निकल गया. अब और पैसा ज़रूर ही चाहिए था. संयोगवश रीडर्स डाइजेस्ट का हिंदी संस्करण सर्वोत्तम निकालने का प्रस्ताव आया, और अरविंद ने पाँच साल काम करना स्वीकार कर लिया. डाइजेस्ट मेँ मेरा कार्यकाल बड़े काम का सिद्ध हुआ. हर छपे शब्द की जाँच पड़ताल, हर तथ्य की सत्यता पर बल - एक नया अनुभव था. यही नहीँ, संपादन का अपना विशेष कौशल. किसी भी रचना के बार बार नए ड्राफ़्ट बनाना, माँजना, सँवारना – सब कुछ अनोखा. फिर हिंदी अनुवाद इस तरह करना कि हर लेख मौलिक लगे! मूल रचना का सच्चा दर्पण, हर शब्द सही सटीक. सब कुछ शिक्षाप्रद था.

1983 में जब मैं ने डाइजेस्ट जाइन किया तो वह (अरविंद कुमार) दिल्ली कार्यालय के अध्यक्ष थे. बाद मेँ मैँ ने सहयोगियोँ से सुना कि वह हम संपादकोँ के बीच स्कालर-संपादक थे[4].

रोजट का माडल फ़ेल हो गया तो अमर सिंह का माडल आज़माया. वह बुरी तरह आउट-आफ़-डेट पुराणकालीन था. उस के मुख्य भाग का आधार वर्णाश्रम व्यवस्था थी. उस में सिंह का संदर्भ क्षत्रिय वर्ण से था, गाय का वैश्य से! संगीत तो नैसर्गिक गतिविधि था, लेकिन गायक था नीच शूद्र!

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1990 तक उन के पास 70 ट्रेओँ मेँ साठ हज़ार कार्डोँ पर लगभग ढाई लाख शब्द थे. तात्कालिक विषयोँ की सभी ट्रे मेज़ोँ पर, बाक़ी दाहिने बाएँ रैकोँ के ख़ानोँ मेँ – लगभग वैसे ही जैसे डिस्ट्रीब्यूटर या कंपोज़ीटर के टाइपोँ के केस रखे रहते थे – अरविंद के लड़कपन के दिनोँ मेँ.

कुसुम का काम था हिंदी कोश में से तक जाते जाते वस्तुओँ, वृक्षोँ, देवीदेवताओँ के (मुख्यतः संज्ञाओँ) के शब्द लिखना. अरविंद का काम था भाववाचक संज्ञाओँ, अमूर्त विषयोँ, क्रियाओँ, विशेषणोँ, क्रिया विशेषणोँ, मुहावरोँ को सँभालना… आसपास की ट्रेओँ का क्रम कुछ इस तरह का था- ब्रह्मांड, तारक पिंड, सौर मंडल… या फिर रोटी पराँठे, निरामिष व्यंजन, अंडा मांस व्यंजन, अचार चटनी, मसाले… या जीवन, मृत्यु, अमृत विष, मारण, हत्या, हिंसा, अहिंसा… दृश्य अनुभूति, दृष्टि उपकरण, अवलोकन… प्रकाश, अंधकार… इन में किसी भी मुख्य कोटि की उपकोटियोँ की बेल जैसी शाखाएँ निकलती हैँ, जैसे अवलोकन से अवलोकन शैली, तिरछी चितवन, सरसरी नज़र… हिंदी मेँ इन सब के कई पर्याय और मुहाविरे भी होते हैँ… सब कुछ अंतहीन सा था. ट्रायल ऐंड ऐरर करते करते अरविंद का अपना माडल निकलने मेँ चौदह साल निकल गए! और यह रोजट के माडल से बिल्कुल भिन्न, पूरी तरह स्वतंत्र, मानव मन के सहज परस्पर संबंधोँ पर आधारित…

 

अब तक अरविंद का बेटा सुमीत सर्जन बन चुका था और दिल्ली के एक सरकारी अस्पताल मेँ था. एक दिन पति पत्नी उस से मिलने गए. अरविंद को सीने मेँ दर्द हुआ.  हार्ट अटैक था. सुमीत ने तत्काल आईसीयू मेँ दाख़िल करा दिया. मुझे पता था मुझे कुछ नहीँ होगा, अरविंद ने कहा. मेरा काम जो बाक़ी था.

ठीक होने के बाद अब काम और महत्वपूर्ण हो गया, तेज़ी आ गई.

हिंदी थिसारस का सही समय आ गया है, अरविंद अपने मित्रोँ से कहते, इस के लिए मुझे चुना गया है. न मैँ थिसारस को छोड़ूँगा न थिसारस मुझे. पूरा होने के लिए वह मुझे बचाता रहेगा.

1991 तक अरविंद को अपूर्ण थिसारस का भावी प्रकाशक मिल गया था. उस का नाम रखा था – समांतर कोश, समांतर अभिव्यक्तियोँ का कोश. जब जब उस की छपाई और प्रकाशन की समस्याओँ का ध्यान आता, अरविंद को बुख़ार सा चढ़ने लगता. वह स्वयं छापेख़ाने मेँ काम कर चुके थे. उस की समस्याएँ जानते समझते थे. पहले कार्ड टाइपिस्टोँ को दिए जाएँगे. टाइपिस्टोँ के हाथोँ उन का क्रम बिगड़ सकता था, कुछ कार्ड खो भी सकते थे. टाइपिंग मेँ ग़लतियाँ छूट जाएँगी. पहले उन के प्रूफ़ पढ़ कर दोबारा टाइप कराना होगा. फिर वे छापेख़ाने जाएँगे, वहाँ जो ग़लतियाँ और घपले होते हैँ, वे भी अरविंद जानते थे. छपते छपते हिंदी टाइपोँ मेँ मात्राएँ टूटने से अर्थ का अनर्थ हो जाता था - यह अरविंद से अधिक कौन जान सकता था… और फिर शब्दोँ का इंडैक्स! संदर्भ खंड छपने के बाद वह कौन कितने समय में बना पाएगा? सारा प्रोजेक्ट चित होता नज़र आता था.

अब सुमीत ने पदार्पण किया. हमें सारा डाटा कंप्यूटरित करना होगा,उस ने कहा. कहना आसान था, करना नहीँ. कंप्यूटर के लिए पैसे थे कहाँ? उन दिनोँ एक लाख से ज़्यादा का बैठता था. किसी से इतना पैसा मिलने की संभावना नहीँ थी. आख़िर सुमीत ने ईरान के एक अस्पताल मेँ काम ले लिया. लौट कर कंप्यूटर ख़रीदा. कंप्यूटर के लिए प्रोग्रामिंग और भी महँगी शै होती है. अंततः सुमीत ने अपने आप किताबेँ पढ़ पढ़ कर प्रोग्रामिंग सीखी और अरविंद के प्रोजैक्ट मेँ सहायता करने लगा.

कंप्यूटर आते ही नज़ारा बदल गया. एक पूर्णकालिक कर्मचारी ने सुमीत के बनाए डाटाबेस में नौ महीने लगा कर सारा डाटा ऐंटर कर दिया. अब अरविंद की बारी थी. वह कंप्यूटर के कलपेँच समझ चुके थे. टाइपिस्ट तो थे ही. लेख टाइपराइटर पर ही लिखते थे. कंप्यूटर के नए कीबोर्ड पर हाथ जमाने मेँ देर नहीँ लगी. नई नई संकल्पनाएँ, नए नए शब्द जोड़े जाने लगे. कहीँ कोई दोहराव होता तो कंप्यूटर तुरंत बता देता. यही नहीँ, कंप्यूटर एक एक शब्द को इंडैक्स मेँ शामिल कर लेगा. अंत में छपाई के लिए पूरी किताब थमा देगा!

 

दिसंबर 1996 मेँ हिंदी ने पहला और विशाल थिसारस देखा – समांतर कोश. इसे बनाने में दो नहीँ पूरे बीस साल लगे थे. राष्ट्रपति भवन में विशेष समारोह में तत्कालीन राष्ट्रपति डाक्टर शंकर दयाल शर्मा को कोश का पहला सैट भेँट किया कुसुम ने, साथ खड़ा था 1952 का वह नौजवान पत्रकार अरविंद कुमार. निस्संदेह, प्राचीन निघंटु और अमर कोश से यहाँ तक भारतीय कोशकारिता की यह लंबी यात्रा थी. समांतर कोश को तत्काल सफलता मिली. इसे हिंदी के माथे पर सुनहरी बिंदी कहा गया. एक समालोचक ने इसे शताब्दी की पुस्तक का ख़िताब दिया. एक ने लिखा- समांतर कोश मेँ से गुज़रना शब्दोँ के मेले मेँ से गुज़रना है.

अरविंद सफलता पर हाथ धरे रहने वालोँ मेँ कभी नहीँ थे. 3,50,000 से अधिक शब्दोँ के डाटा के विकास का और उस मेँ इंग्लिश अभिव्यक्तियाँ सम्मिलित करने का महाप्रयाण शुरू हो गया. बेटी मीता न्यूटरीशनिस्ट बन चुकी थी. उस ने समांतर कोश की सभी संकल्पनाओँ के लिए प्रस्तावित इंग्लिश शब्द हाशिए मेँ लिखना शुरू कर दिया. अँगरेजी शब्दावली डालने में इस से मुझे बड़ी सहायता मिली,अरविंद कहते हैँ.

अब दस और साल लगा कर कुमार दंपति का तीन खंडोँ वाला महाग्रंथ आया – द पेंगुइन इंग्लिश–हिंदी/हिंदी–इंग्लिश थिसारस ऐंड डिक्शनरी (2007).

अरविंद का एक अन्य उल्लेखनीय कोश है शब्देश्वरी -  देवीदेवताओँ के नामोँ का थिसारस. इस मेँ शिव के 2411 नाम हैँ.

 

और अब इंटरनैट के http://arvindlexicon.com पते पर उपलब्ध है अरविंद लैक्सिकन[5] -- द्विभाषी हिंदी–इंग्लिश–थिसारस. इस मेँ हिंदी शब्द रोमन लिपि में भी पढ़े जा सकते हैँ. जो लोग देवनागरी नहीँ जानते उन के लिए यह एक विशेष सुविधा है. साथ ही तैयार हैँ— टैबलेट, स्मार्ट फ़ोन, सैल फ़ोन आदि के लिए ऐंड्राइड संस्करण. सब कुछ पारिवारिक प्रयास है, अरविंद का कहना है. अब परिवार ने अपनी कंपनी भी खोल ली है – अरविंद लिंग्विस्टिक्स प्रा. लि.[6] इस की सीईओ (अध्यक्ष) है मीता.

अरविंद को संतोष है कि अब तक समांतर कोश की बीस हज़ार से ज़्यादा प्रतियाँ बिक चुकी हैँ. छठा रीप्रिंट अभी आया है. लेखक, पत्रकार, विज्ञापन कापीराइटर, अध्यापक, विद्यार्थी – सब इस से लाभ उठा रहे हैँ. जब भी ज़रूरत पड़ती है मैँ अरविंद कुमार के थिसारस के पन्ने पलटता हूँ, यह कहना है मुंबई के विज्ञापन लेखक और क्रिएटिव ट्रांसलेटर लक्ष्मीनारायण बैजल का (बैजल ने थम्सअप के लिए तूफ़ानी ठंडा जिंगल लिखी है.) सच तो यह है कि हमारे अनुवादक-मेल-समूह का कोई भी सदस्य इस की उपयोगिता सहर्ष बताएगा.

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अरविंद कुमार का योगदान अमूल्य है, कहना है दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभागाध्यक्ष और डीन आफ़ कालिजेज़ और लोकप्रिय स्तंभ लेखक डाक्टर सुधीश पचौरी का. यद्यपि मैँ हिंदी भाषा मेँ सक्षम हूँ, फिर भी जब कभी मेरे मन मेँ कोई क्लिष्ट अकादेमिक शब्द आता है, तो आसान शब्द खोजने मेँ थिसारस बड़े काम आता है.आश्चर्य नहीँ, कई हिंदी क्षेत्रोँ में अरविंद शब्द कोशकार का पर्याय बन गया है. अरविंद को अनेक साहित्यिक पुरस्कार और सम्मान[7] भी मिले हैँ.

 

फिर भी जब इतने सालोँ बाद मैँ रीडर्स डाइजेस्ट के अपने पूर्व सहकर्मी अरविंद जी (82 साल) से मिला, तो उन्हों ने कहा कि उन का काम अभी ख़त्म नहीँ हुआ है. अब भी वह सुबह पाँच बजे उठ कर अपने विशाल डाटा के परिष्कार और संवर्धन मेँ लग जाते हैं. बड़े बड़े सपने अभी और भी हैँ. इन मेँ से एक है-

सभी प्रमुख भारतीय भाषाओँ को अपने विशाल डाटा मेँ समाने का. आरंभ करना चाहते हैँ तमिल से. और बाद मेँ आकांक्षा है इंग्लिश-इतर विदेशी भाषाओँ के शब्द संकलन की. इस के लिए सुमीत ने कंप्यूटर ऐप्लिकेशन तैयार कर ली है. बढ़ कर यह सुविशाल डाटा शब्दोँ का विश्व बैंक बन जाएगा और इस की सहायता से बहुभाषी थिसारस पलक झपकते ही बनाए जा सकेँगे.

ये सब महान संभावनाएँ हैँ, कहना है हमारे अद्भुत कोशकार का. जब तक भाषाएँ बढ़ती और सँवरती रहेँगी, मेरा काम चलता रहेगा.  ÐÐ



[1] ग्रीक शब्द थिसारस का सरल हिंदी अनुवाद तिजौरी है.

[2] थिसारसकारोँ की भाषा में हर शीर्षक/उपशीर्षक विषय या संकल्पना कहलाते हैँ यानी किसी एक वस्तु या वस्तु समूह की अमूर्त या सामान्यकृत कोटि.

[3] इंग्लिश से हिंदी कोश बनाने वाले कोशकार जब इस शब्द पर आते हैं, तो वे बस शिरस्त्राण लिख देते हैं, क्योँ कि उन्हेँ इस के लिए प्रचलित शब्दोँ की जानकारी नहीँ होती. शिरस्त्राण तो किसी भी उस चीज़ के लिए काम में लाया जा सकता है जिस से सिर की रक्षा होती है. सवाल यह उठता है कि राणा प्रताप युद्ध मेँ क्या लगाते थे? हैल्मेट तो क़तई नहीँ! हमारे पास राजस्थानी का झिलम शब्द है, और भी बहुत सारे शब्द हैँ. वे हिंदी से हिंदी कोशोँ मेँ हैँ, पर समांतर कोश से पहले कहीँ संकलित नहीँ थे. (--अनुवादक)

[4] अरविंद के छोड़ने के एक दशक बाद सर्वोत्तम का प्रकाशन स्थगित हो गया.

[5]इस कोश का लाभ उठाने के लिए पहले अपने आप को रजिस्टर करना होता है. अपना पूरा नाम रोमन लिपि के लोअर केस में एक शब्द के रूप मेँ लिखेँ. जैसे – arvindkumar (--अनुवादक)

[6] अरविंद लिंग्विस्टिक्स ने अब पेंगुइन इंडिया से द पेंगुइन इंग्लिश–हिंदी/हिंदी–इंग्लिश थिसारस ऐंड डिक्शनरी के सर्वाधिकार वापस ले लिए हैँ. अब वही इस का वितरण सँभाल रही है. पता है अरविंद लिंग्विस्टिक्स प्रा. लि., ई-28 प्रथम तल, कालिंदी कालोनी, नई दिल्ली 110065 (-अनुवादक)

[7] कुछ सम्मान हैँ- महाराष्ट्र हिंदी अकादेमी का महाराष्ट्र भारती अखिल भारतीय हिंदी-सेवा पुरस्कार, हिंदी साहित्य सम्मेलन का डाक्टर हरदेव बाहरी सम्मान, केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा, का सुब्रहमन्य भारती पुरस्कार और 2011 मेँ हिंदी अकादेमी (दिल्ली) का सर्वोच्च शलाका सम्मान

 

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